शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बढते अपराध...




हिन्दुस्तान जैसे धार्मिक और सहिष्णु देश में अपराधों का ग्राफ यदि साल दर साल ऊपर की ओर बढे तो यह अत्यधिक चिंता जनक बात है . पश्चिमी और विकसित देशों में, जहां समूचा मानव जीवन यंत्र चालित सा दिखाई पड़ता है, वैज्ञानिक प्रगति के साथ - साथ अपराधों में भी बेतहाशा वृद्धि हो रही है , वहाँ अपराध और हिंसा यांत्रिक जीवन के संचालित अंग जैसे लगने लगे हैं वहीं हमारा देश यहाँ की प्रकृति, लोगों में सहिष्णुता की भावना, प्रचुर धार्मिकता, वसुधैव कुटुम्बकम  के मन्त्र को अपनाता  हमारा समाज पश्चिमी और यूरोप के विज्ञान और तकनीकी को, देश की प्रगति तक ही  सीमित रखना चाहता है, देश को यंत्र चालित नहीं करना चाहता . क्यूंकि इस यन्त्र चालित जीवन के अच्छे बुरे पहलु यूरोप और पश्चिमी देशो के वर्तमान में दिखाई देते हैं . फिर भी हमारा समाज 'अपराध समाज ' की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है |
                     
                      यह विडंबना है की चोरी डकैती लूटपाट जैसे अपराध हमेशा से ही कम या अधिक हमारे समाज के साथ साथ किसी भी समाज में रहे हैं . वे तब तक हमारी चिंता का कारण नहीं बनते जबतक की सामान्य जीवन को बुरी तरह झंझोड़  ना दें  . यह सत्य है की किसी भी समाज में 'राम राज्य ' जैसा कुछ नहीं होता . यह अच्छे और बहुत अच्छे समाज की समाज की संकल्पना है, जो उस समाज की अपराधिक प्रव् त्तियों पर अंकुश लगाये रखने में यंत्र का सा कार्य करती हैं .
भारतीय समाज के सारे पुराने मूल्य और आदर्श पतनशील हैं , उनकी जगह लेने के लिए नए विचार और प्रयास अब तक सामने नहीं आये हैं . यह एक संक्रमण कि स्थिति है और इसी का एक प्रमुख लक्षण है - अपराध |
                      लेकिन आज  ऐसा लगता है की हमारे समाज में यही यंत्र  या तो कहीं खो गया है अथवा उस पर जंग लग गया है . बढ़ते अपराध हमारे समूचे जीवन तंत्र को प्रभावित कर रहे हैं, हमारी सोच पर असर डाल रहे हैं , जीवन को असुरक्षित कर रहे हैं . कभी-कभी  कानून की गिरफ्त  में रह कर भी अपराधी  पर कानून की पकड़ शिथिल हो जाती है . वह राजनेताओं का संरक्षण पाता है या फिर कभी स्वयं भी राजनेता बन जाता है और व्यवस्थाओं  में बंधी पुलिस भी उसे पूरा संरक्षण देती है , उसकी मदद करती है या फिर एसा करने पर मजबूर होती है . इस सबसे आम आदमी के मन में यह भावना पनपती है की सफल और सुरक्षित जीवन केवल धौंस - धपट और शक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है, लिहाजा वह अपने स्तर पर भी अपराध को प्रश्रय  देता है |

                      देश के महानगरों में आपराधिक घटनाएं सर्वाधिक रूप से होती हैं , वस्तुतः शहर सत्ता एवं शक्ति का केंद्र होते हैं किन्तु छोटे नगरों में भी और अविकसित क्षेत्रो में भी चोरी , लूट और सेंधमारी जैसी आपराधिक घटनाएं बढती जा रही हैं.
इस प्रकार बढ़ते अपराध का कारण कहीं पर अविकसित  अवस्था एवं अभावग्रस्तता होता है और कही इसका कारण विकसित अवस्था एवं साधन  संम्पन्नता भी होता है . विकास के बढ़ते आयामों के साथ-साथ  भी अपराध में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है. गौर करने पर प्रतीत होता है कि अपराधों  के स्वरुप में भी बदलाव आता जा रहा है . कुल मिला कर वह अनैतिकता और अमानवीयता की वीभत्स तस्वीरे पेश कर रहा है |
                      वास्तव में अपराध की ये अमानवीय घटनाएं महज कुछ घटनाएं नहीं है या अखबार की सुर्ख़ियों में चमकने वाली वाली कुछ खबरे भर नहीं हैं . असल में , ये उस भविष्य की एक भयावह तस्वीर है , जिसकी दहलीज़ पर हम आज खड़े हैं . यह हमारे सामाजिक बदलाव पर एक कठोर टिप्पणी है जिससे हम कतरा कर बच निकलना  चाहते हैं. अभी हाल ही में सी. बी. आई. की रिपोर्ट आई है जिसमे कहा गया है की भारत में  अपराधों में  बेतहाशा वृद्धि हुई है |

                     औद्योगीकरण , शहरीकरण और आधुनिकीकरण की सामान्य परिणिति है - अपराध वृद्धि I वस्तुतः अपराध का बढ़ना एक विश्वव्यापी समस्या है जो पूंजी वादी देशों में खासतौर से घटित हुई है. भारत भी अब इसकी चपेट में है , खुलेपन की अवधारणा के तहत भारत की नयी पीढ़ी  पश्चिमी मीडिया को घर बैठे देख रही है. आज का समाज एक गहरे और असुरक्षा बोध , आत्मनिर्वासन और संत्रास से ग्रस्त है उसी की प्रतिकृति मीडिया द्वारा देखने को मिल रही है. मीडिया में अपराध एक 'एडवेंचर' है , एक साहसिक खेल है फलस्वरूप अपराध के महिमामंडन से अवगत होने वाली नयी पीढ़ी  जो संभ्रांत परिवार से सम्बंधित होती है सिर्फ 'एडवंचर' और 'थ्रिल' के तौर पर अपराध कर रही है | 
                                          

                        समाज में बढती मूल्यहीनता और आपराधिक गतिविधियों पर एक और परिप्रेक्ष्य  में विचार किया जाय तो प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या हमारे तमाम आदर्श और विचार खोखले साबित हो चुके हैं ?
क्या सारी संस्थाएं इतनी जर्जर हो चुकी हैं कि वे इस आपराधिक वृद्धि पर अंकुश नहीं लगा सकती ? आमतौर पर धर्म और राज्य दो ऐसे तंत्रों के रूप में माने जाते रहे हैं जो समाज पर अंकुश लगाने का कार्य करते हैं. ये समाज के सामने एक नैतिक आदर्श रखते हैं और समाज उन पर चलता है . फिलहाल भारतीय राज्य व्यवस्था भारतीय जनता के सामने कोई आदर्श रख्पाने में विफल रही है |

                      भारत में अपराध संस्थाबद्ध हो चुका है. यह अचानक नहीं हुआ बल्कि एक लम्बी प्रक्रिया के तहत हुआ है . आपराधिक वृद्धि  पर अंकुश लगाने के लिए सबसे पहले अपराध - पूंजी - सत्ता और पुलिस के बीच कायम अनुचित गठबंधन पर प्रहार करना आवश्यक है , साथ ही समाज में व्याप्त उन तमाम असंगतियों को भी मिटाना होगा जो अपराध के बढ़ने में सहायक हैं . उचित रोजगार , शिक्षा के सामान अवसर बहुत हद तक अपराध रोकने में सहायक सिद्ध  हो सकते हैं |

--डॉ. वन्दना सिंह .

स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक


                                                
तारीख '१५ अगस्त' और बोध होता है,भारतीय शहीदों के बलिदान और देशभक्ति भाव की विजय का, उस अंग्रेजी शासन की बर्बर एवं क्रूर पराधीनता से जिसे देश ने सदियों तक झेला I विदेशी हुकूमत से हासिल आज़ादी की ख़ुशी हालंकि पूरी तरह खुशनुमा नहीं रही.....बंटवारे की राजनीति खेल कर, दी गई आज़ादी, कहीं न कहीं बहुत रक्तपात युक्त और दर्दनाक  भी रही जो गाहे बगाहे प्रशासन समेत आम जन जीवन तक को झकझोर देती है I सन १९४७ से २०१० तक  63 वर्ष की स्वतंत्रता का सही मूल्य वही समझ सकते हैं जिन्होंने वो आतंक झेला जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते I विचारणीय प्रश्न यही है की कितना अपना है हमारा देश ? कितना मान दिया है हमने अपनी स्वतंत्रता को ? क्या है राष्ट्र की अस्मिता , क्या है इसकी संस्कृति,कौन  है इसके प्रेरणा स्रोत और कहाँ से मिलेगी इसको ऊर्जा_इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर भी हमें विचार करना चाहिए I
                   वन्दे-मातरम् कहते हुए अपना जीवन न्योछावर करने वाले शहीदों के सपनो के स्वतंत्र एवं अखंड भारत में अलगाववादी राजनीति , पृथकतावादी आन्दोलनों की सक्रियता आखिर क्यूँ बनी है ? क्यूँ नहीं देश के नागरिकों में अपने राष्ट्र के प्रति सम्मान और प्रेम उत्पन्न हो सका ? कहीं न कहीं कोई कमजोरी तो रही है , यह कमजोरी संवैधानिक स्तर पर है या राजनितिक दर्शन के  स्तर पर या फिर इसका अन्य कोई कारण है यह विचार पिछले  ६३ वर्षों में शायद ही कभी किया हो I समीक्षा करने का प्रयास करें तो स्वाधीनता के बाद से ही राष्ट्र वैचारिक और दार्शनिक उहापोह के द्वन्द से जूझता रहा है I भारतीय संस्कृति और दर्शन के ऊपर 'मेकाले' चिंतन से ओतप्रोत साम्राज्यवादियों द्वारा प्रतिपादित मार्ग से किन आदर्शों एवं मूल्यों को मान्यता दी गई, समझ पाना मुश्किल है और  देश का प्रशासनिक ढांचा तो है ही साम्राज्यवादी वादी सत्ता की देन I
              किन्तु स्वतंत्रता में निहित भाव, जो मुक्ति देता है दासता के भाव से वह कितना अद्वितीय है इसका विचार करना
भी आवश्यक है I
जिन परिस्थितियों में देश को स्वतंत्रता मिली वे आर्थिक, सामाजिक, राजनितिक विकास के स्तर पर अत्यंत पिछड़ी हुई थी I सोने की चिड़िया माने जाने वाला भारत जब स्वतंत्र हुआ तो जीर्ण शीर्ण अवस्था में  था I जनमानस का शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक शोषण अपने चरम पर था I स्वतंत्रता प्राप्ति जो ध्येय रही आजादी के मतवालों की , उनके बलिदान का प्राप्य भारत एकदम खोखला था I  समृद्धि व खुशहाली के लिए  अनेकानेक विकास जनित कार्यक्रम चलाए गए और परिणाम स्वरुप देश अब पिछड़े देशों की श्रेणी से निकल कर विकसित देशों की सूचि में  लगभग पहुँच  चुका है I देश का  संस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दर्शन  तो वह सदैव से ही उन्नत अवस्था में रहा है और वह भारतीय  अखंडता का प्रतीक एवं प्रमाण है I  भारत देश विभिन्नता में एकता के भू - सांस्कृतिक अवधारणा की विश्व भर में एक मात्र मिसाल है जिसका सम्मान हमें यहाँ के नागरिक होने के नाते अवश्य करना चाहिए I हमें निश्चित ही गर्व होना चाहिए ऐसे देश के नागरिक होने का जहां से दुनिया को आध्यात्म एवं  विज्ञान का ध्यान और ज्ञान मिला I परन्तु उपहार स्वरुप मिली स्वतंत्रता का महत्व अनदेखा कर नित नए उपहास अपने ही देश के सम्मान का करते है I भूल जाते हैं परिचर्चाओं में नकारात्मक मत देते हुए की शहीदों ने आजाद भारत के हित में जो सपने देखे, उन्हें साकार करना हमारा काम है , हमारा उद्देश्य है I यदि यह भाव हमारा ध्येय रूप लेले तो भारत की अखंडता पर कभी  कोई आंच नहीं आ सकती I
                   अतः हमें पहचाना होगा अपनी स्वतंत्रता को ,राष्ट्र की अस्मिता को , संस्कृति को ,इसके प्रेरणा स्रोत को और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न इसको मिलने वाली उर्जा को जो निसंदेह हम स्वयं है -स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक I

                                                                                                                                                       - डॉ. वन्दना सिंह