शुक्रवार, 16 मार्च 2012

ग़ज़ल....



मुकम्मिल न हो सका अबस मेरा ख्वाब था ।
महताब आसमाँ का मेरा इन्तिख्वाब था  ।।

बे.कायदा भी बनती फकत यूँ न बन सकी ।
मेरी हर खता पे रहमत उसका जवाब था ।।

बढ़ चली थी इस कदर खुदगर्जियाँ इंसान  की ।
रिश्तों का एहतराम निभाना अजाब था ।।   

एहतियातन कर लिया उससे किनारा मैंने ।
दिलशाद बिछड़ कर मुझसे मेरा अहबाब था ।।

बगावत का हर ख्याल बखूबी भुला दिया ।
निभाना इश्क में वफ़ा का कारे सराब था ।।

रिवाज़ों की गिरफ्फत से मुसल्लत थी इस कदर ।
कि सर पे मेरे संगदिली का खिताब था ।।

...वन्दना...