गुरुवार, 26 अप्रैल 2012



इच्छाओं और अग्नि के मध्य 
जो सम्बन्ध है,
वही तो पापों का अनुबंध है...
हमारा अंतर कहीं न कहीं /
कभी न कभी
पुण्य प्राप्ति चाहता है 
तभी तो वह कभी किसी 
'पत्थर' को पूज लेने में भी 
नहीं हिचकिचाता है ;
हम कितनी जटिलता 
से जकड़े हैं , इन 
सही और गलत शब्दों के बीच में...
चुन चुन कर प्रेम चुनते हैं..
सावधानी पूर्वक निर्णय करते हैं 
और...
अक्सर ही सीधी , सरल राह चुनते हैं 
चलने के लिए , कि 
मंजिल तक पहुँच जाएँ 
पर हो सकता है,
इससे भी ज्यादा ...
और भी ज्यादा 
हम उसी 'मध्य' में 
फंसते जाते हैं
क्योंकि ,
बहुत कुछ करने की इच्छाएं दबाकर 
अग्नि से खेलते हैं...

....वन्दना...





इस पृथ्वी पर 
निसंदेह , सब कुछ 
व्यर्थ है  -
निस्सार है
इंसान - कितनी मेहनत करता है
'कुछ ' पाने के लिए 
परन्तु इस धरती पर 
आखिर उसे क्या मिलता है ?
बहुत कुछ पाकर भी ,
मात्र संतोष भी नहीं मिल पाता
चाहा,अनचाहा 
सब होने के बावजूद 
कमी 'कुछ' की रह ही जाती  है 
और यूँ ही...
एक पीढ़ी गुजरती है 
दूसरी आ जाती  है 

पर  ये धरती 
सदा ऐसे ही रहती है 
वक्त ऐसे ही चलता रहता है 
इस पर बसने वाले 
और जीने वाले 
इंसान का / उसकी उदासी का 
उस पर फरक नही पड़ता
वो थी ,
और शायद 
चिरकालीन है .

सूरज अपनी  निश्चित जगह से
उगता है 
और सुनिश्चित जगह जाकर 
छिप जाता है ,
सभी नदियाँ ...
सागर में मिलती हैं,पर
सागर कभी भरता नहीं 
फिर भी नदियाँ...
अपने उद्-गम  स्थल से 
बहती रहती हैं ,रूकती नहीं ...
कहीं भी पडाव नहीं...

इंसान भी जन्म लेता है
और मर जाता है
सच, सब बातें थकाने वाली हैं 

आँखें देखकर भी तृप्त नहीं होती 
कान...सुन कर भी संतुष्ट नहीं होते,
मनुष्य...
 इनका वर्णन भी नही कर सकता...
जो हो चुका है घटित 
वही  पुनः होगा 
और होता रहेगा...

सूरज ,नदियाँ,इंसान...
सब अवश- विवश 
इस धरती पर,
आसमां के नीचे 
कुछ भी नया नहीं है 
कुछ भी ऐसा नहीं है 
जिसे देख कर कोई कहे...
'देखो वह बात नयी है'
नहीं!!!
सब हो चुका है
अतीत  में सब सुरक्षित है 
और उसकी स्मृति 
वर्तमान में भी शेष नहीं रह पाती 
और ना हमारे पश्चात 
आने वालों को याद रहेगा 
उनका अतीत ...
इसलिए ..
सब व्यर्थ है..
सब निस्सार है...
इस पृथ्वी पर...

....वन्दना...

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

इश्क



ग़ुलामी इश्क में मन्नत....
तबाही इश्क में जन्नत..
खुदी का दम भरना..
मुहब्बत में न करना...
...वन्दना..

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

गज़ल...



आरजू-ए-शफक तो है मगर आसमां से नहीं,
तलाश-ए-गुल भी है मगर गुलिस्ताँ से नही

मुद्दत से आँखों में समाये हुए हैं दरिया,
उमड़ता ही सैलाब-ए-अश्क पर मिशगाँ से नही

मस्लेहतों  ने छीन लिया जो कुछ भी था हासिल,
इस वक्त से मैं पस्त हूँ मगर इम्तेहां से नही

राहबर ही लूटते हैं इस जहान में ,
लगता है कारवां से डर बयाबाँ से नही
...वन्दना...