महताब आसमाँ का मेरा इन्तिख्वाब था ।।
बे.कायदा भी बनती फकत यूँ न बन सकी ।
मेरी हर खता पे रहमत उसका जवाब था ।।
बढ़ चली थी इस कदर खुदगर्जियाँ इंसान की ।
रिश्तों का एहतराम निभाना अजाब था ।।
एहतियातन कर लिया उससे किनारा मैंने ।
दिलशाद बिछड़ कर मुझसे मेरा अहबाब था ।।
बगावत का हर ख्याल बखूबी भुला दिया ।
निभाना इश्क में वफ़ा का कारे सराब था ।।
रिवाज़ों की गिरफ्फत से मुसल्लत थी इस कदर ।
कि सर पे मेरे संगदिली का खिताब था ।।
...वन्दना...