निसंदेह , सब कुछ
व्यर्थ है -
निस्सार है
इंसान - कितनी मेहनत करता है
'कुछ ' पाने के लिए
परन्तु इस धरती पर
आखिर उसे क्या मिलता है ?
बहुत कुछ पाकर भी ,
मात्र संतोष भी नहीं मिल पाता
चाहा,अनचाहा
सब होने के बावजूद
कमी 'कुछ' की रह ही जाती है
और यूँ ही...
एक पीढ़ी गुजरती है
दूसरी आ जाती है
पर ये धरती
सदा ऐसे ही रहती है
वक्त ऐसे ही चलता रहता है
इस पर बसने वाले
और जीने वाले
इंसान का / उसकी उदासी का
उस पर फरक नही पड़ता
वो थी ,
और शायद
चिरकालीन है .
सूरज अपनी निश्चित जगह से
उगता है
और सुनिश्चित जगह जाकर
छिप जाता है ,
सभी नदियाँ ...
सागर में मिलती हैं,पर
सागर कभी भरता नहीं
फिर भी नदियाँ...
अपने उद्-गम स्थल से
बहती रहती हैं ,रूकती नहीं ...
कहीं भी पडाव नहीं...
इंसान भी जन्म लेता है
और मर जाता है
सच, सब बातें थकाने वाली हैं
आँखें देखकर भी तृप्त नहीं होती
कान...सुन कर भी संतुष्ट नहीं होते,
मनुष्य...
इनका वर्णन भी नही कर सकता...
जो हो चुका है घटित
वही पुनः होगा
और होता रहेगा...
सूरज ,नदियाँ,इंसान...
सब अवश- विवश
इस धरती पर,
आसमां के नीचे
कुछ भी नया नहीं है
कुछ भी ऐसा नहीं है
जिसे देख कर कोई कहे...
'देखो वह बात नयी है'
नहीं!!!
सब हो चुका है
अतीत में सब सुरक्षित है
और उसकी स्मृति
वर्तमान में भी शेष नहीं रह पाती
और ना हमारे पश्चात
आने वालों को याद रहेगा
उनका अतीत ...
इसलिए ..
सब व्यर्थ है..
सब निस्सार है...
इस पृथ्वी पर...
....वन्दना...