वक़्त !
मुट्ठी में
रेत सी
फिसलती
यादें और
छूटे साथ
मानो
कांच की
किरचियों पर
खड़े हम
तुझे तकते हैं
भ्रम नहीं
रौशनी
यकीनन
मगर
भ्रमित करते
इंद्रधनुषी रंग
सजता है
जिनसे एक
सपनीला
आसमान
लहरों के
ज्वार पर
हम अपनी
नैय्या खेते हैं
कुछ
टूटे बिखरे
कुछ
छूटे - पल
कुछ
पुकार विकल
कुछ
मनुहार सजल
मनुहार सजल
कुछ दायरे
निरर्थक...
मन की अटल
गहराइयों में
जा बसा मौन
विराट मरुस्थल
की प्यास सा
अक्सर
दरकाता है ये
गर्वित खंडहर
और हम
एक स्वर की
चाहना में
अक्षर मोती
पिरोते हैं