"शब्द संवेदन" संवेदन शील मन से निकलने वाले शब्द जो स्वरुप ले लेते हैं कविता का, ग़ज़ल का,नज़्म का... लेखनी के सहारे,अभिव्यक्ति का आधार हमारे शब्द संवेदन इंसानी जीवन की अहम् जरूरत हैं. और अभिव्यक्ति वाकई जीवन को हल्का,सहज और सरल बना देती है.बेशक महज़ आत्मसंतुष्टि के लिए नहीं बल्कि जिंदगी के अनुभव भी ,चाहे खट्टे हो या फिर मीठे,संवेदनाओं को शब्दों में पिरोने और अभिव्यक्त करने के साथ ही हमारे सोच विचारों के झंझावातों में फंसे दिल और दिमाग को शांत कर देते हैं. "शब्द संवेदन" पर आप सभी का स्वागत है.
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
रविवार, 20 नवंबर 2011
सम्हल रे मन सम्हल.....
सम्हल रे मन सम्हल.....
निज स्वार्थ का तम हर..
बन दृढ से तू दृढतर...
मान आस्था का कर...
बलवान धर्म कर...
सम्हल रे.....
बदल पतित मन...
मनोवृत्ति भी बदल...
निर्धन को देदे धन...
हो शान्ति का वतन...
सम्हल रे मन.....
छु ले धवल शिखर...
कर बंजर भू उर्वर...
जननी को धन्य कर...
गा वन्दना के स्वर....
सम्हल रे मन सम्हल...
निज स्वार्थ का तम हर..
बन दृढ से तू दृढतर...
मान आस्था का कर...
बलवान धर्म कर...
सम्हल रे.....
बदल पतित मन...
मनोवृत्ति भी बदल...
निर्धन को देदे धन...
हो शान्ति का वतन...
सम्हल रे मन.....
छु ले धवल शिखर...
कर बंजर भू उर्वर...
जननी को धन्य कर...
गा वन्दना के स्वर....
सम्हल रे मन सम्हल...
...वन्दना....
मंगलवार, 16 अगस्त 2011
बदगुमानी...
बदगुमानी में जिया तो जी भी लिया..
शौक-ऐ-यकीं के शरारों से जला जिया...
तल्खी-ऐ-जीस्त से बिगड़ा मिजाज़े आशिकी...
अक्स-ऐ-गम-ऐ-यार ने ग़मगीन किया...
शौक-ऐ-यकीं के शरारों से जला जिया...
तल्खी-ऐ-जीस्त से बिगड़ा मिजाज़े आशिकी...
अक्स-ऐ-गम-ऐ-यार ने ग़मगीन किया...
....वन्दना....
बुधवार, 10 अगस्त 2011
'इच्छा -शक्ति'
संभवतया
इच्छा और शक्ति के मध्य का
यह संघर्ष-
मन और मस्तिष्क का संघर्ष
बन गया है,
'इच्छा -शक्ति'
है अथवा नहीं ?
मानो दोनों ही अलग - अलग
पलडो पर हैं-
अतुलनीय...
संघर्षरत,
मात्र मेरे निर्णय को अपने-अपने
पक्ष में करने के लिए कि-
दृढ़ता किसमे ज्यादा है?
मन-
अधिकांशतः ही झुकता आया है/कमजोर पड़ता है
दबावों के आगे
परन्तु, मस्तिष्क-
कठोर हो संवेदनाए नष्ट कर देता है
इच्छाओं और आवश्यकताओं की भी
'कोई' नहीं जान पायेगा....
और मन चाहने लगता है
नहीं ! खुद को आजमाना है
मस्तिष्क आदेश देता है
और,
मेरी मजबूती फिर से बढ़ जाती है
अंतर्द्वंद / संघर्ष
भी बढ़ जाता है
और मन का मौन कही दब जाता है
शब्द मुखर हो जाते है
किन्तु ,
मोल उन शब्दों का नहीं
जो प्रभावित करने की आकांक्षा में
निकले थे
शब्दों का जाल तो प्रपंच भी हो सकता है
मोल तो स्वयं की निष्ठा...
स्वयं की आस्थाओं का है
मुझे अब खुद को तोलना होगा
और
जानना होगा
क्या मैं--
जीत पाउंगी?
या फिर मात्र
अनावश्यक प्रपंच ही रच सकती हूँ...
इच्छा और शक्ति के मध्य का
यह संघर्ष-
मन और मस्तिष्क का संघर्ष
बन गया है,
'इच्छा -शक्ति'
है अथवा नहीं ?
मानो दोनों ही अलग - अलग
पलडो पर हैं-
अतुलनीय...
संघर्षरत,
मात्र मेरे निर्णय को अपने-अपने
पक्ष में करने के लिए कि-
दृढ़ता किसमे ज्यादा है?
मन-
अधिकांशतः ही झुकता आया है/कमजोर पड़ता है
दबावों के आगे
परन्तु, मस्तिष्क-
कठोर हो संवेदनाए नष्ट कर देता है
इच्छाओं और आवश्यकताओं की भी
'कोई' नहीं जान पायेगा....
और मन चाहने लगता है
नहीं ! खुद को आजमाना है
मस्तिष्क आदेश देता है
और,
मेरी मजबूती फिर से बढ़ जाती है
अंतर्द्वंद / संघर्ष
भी बढ़ जाता है
और मन का मौन कही दब जाता है
शब्द मुखर हो जाते है
किन्तु ,
मोल उन शब्दों का नहीं
जो प्रभावित करने की आकांक्षा में
निकले थे
शब्दों का जाल तो प्रपंच भी हो सकता है
मोल तो स्वयं की निष्ठा...
स्वयं की आस्थाओं का है
मुझे अब खुद को तोलना होगा
और
जानना होगा
क्या मैं--
जीत पाउंगी?
या फिर मात्र
अनावश्यक प्रपंच ही रच सकती हूँ...
---वन्दना....
रविवार, 7 अगस्त 2011
गुरुवार, 28 जुलाई 2011
शुक्रवार, 22 जुलाई 2011
माँ....
मेरे उर में जागी है
इक व्यथा...
माँ, तुम जैसी
ही है मेरी
भी कथा......
माँ.....
तुमने सब दिया...
जन्म...
और सुख के सभी
आधार....
पर पुत्री को क्यूँ
न दिया सेवा
का अधिकार......
माँ.....
तुमने ही सिखाया प्रतिपल...
जल जल ...
दिव्य जीवन....
और उससे
साक्षात्कार....
माँ ......
तुम महा सिन्धु....
मैं तो मात्र एक
बिंदु....
पाया तुमसे ही आकार....
पंचतत्व आधार,
पर देह तो तुम्ही से
पायी माँ.....
समर्पित तुम्हे....
मेरे शब्दों की संवेदना.....
उऋण न हो सकेगी,
कभी....माँ....
तुम्हारी वन्दना.....
....वन्दना ....
निंदा और आवेश...
निंदा और आवेश भरे स्वर....
हो जाते हैं जब मुखर....
कैसे जगाएंगे समुदाय....
और कैसे दूर करें,
.......अन्याय.....
परिपक्व हो यदि विचार...
फिर रौशन होगा जग संसार...
फिर रौशन होगा जग संसार...
हो जाते हैं जब मुखर....
कैसे जगाएंगे समुदाय....
और कैसे दूर करें,
.......अन्याय.....
परिपक्व हो यदि विचार...
फिर रौशन होगा जग संसार...
फिर रौशन होगा जग संसार...
...वन्दना....
शुक्रवार, 27 मई 2011
आम जनता पर सरकारी सीनाजोरी...
आम जनता तो जैसे होती ही ठगने के लिए है और सरकारी सीनाज़ोरी देखिये कभी कहते हैं कि पिछले घाटे को पूरा करने के लिये दाम बढाये गये हैं, कभी अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की उथल पुथल के भारी भरकम कारण पेश कर दिए जाते हैं जो बिचारी मासूम जनता की समझ से परे होते हैं ।कभी कभार मूल्य नियंत्रण के तोहफे इस कदर प्रभावी हों जाते हैं कि सारे देश मे चुनावी बूथ इससे प्रभवित हो जाते हैं |अक्सर चिल्लाने वाली ममता भी खामोश रह जाती हैं ,क्योंकि इस मूल्य नियंत्रण का लाभ शायद उन्हे भी मिला ही है । खैर .... आखिरकार आम जनता ठगी जा चुकी है और आगे भी ठगी जाती रहेगी | सरकार जिसकी रहेगी वो ये सीनाजोरी का हथियार बडी ही सीनाजोरी से इस्तेमाल करता रहेगा और जिसे फ़ायदा होना होगा वो मज़े मे रहेगा जिसका नुकसान होगा वो चिल्लायेगा और मरेगी सिर्फ़ आम जनता। क्योंकी खास जनता को, सरकारी अफ़सरों को और ठगी से बन रहे नेताओं को इससे कोई फ़र्क़ नही पड़ने वाला क्योंकी दाम बढे या ना बढे उनके बाप का क्या जाता है सरकारी माल से खरीदा जाता है सब कुछ,मेहनत की कमाई तो जाती है आम आदमी की,जिसकी चिंता करने का सरकार के पास टाईम ही नही है।उन्हे तो बस जनता को ठगने की तिकडम करना आता है और ऐसा वो बड़ी ही सीनाजोरी से कर रहे हैं।
दरअसल हाल ही में एक खबर पढ़ी कि देश में डीजल कार की मांग बढ़ रही है | कारण क्या है ? निसंदेह पेट्रोल की बढ़ती क़ीमतों ने डीज़ल कारों की मांग बढ़ा दी है। डीज़ल कारों की क़ीमत ज़्यादा होने के बावजूद डीज़ल कार अब लोगों के लिए फ़ायदे का सौदा बनती जा रही है। पिछले 5 सालों में डीज़ल कारों की बिक्री में 10 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। पांच साल पहले भारतीय कार बाज़ार में से डीज़ल कारों की बिक्री का 20-22 फ़ीसदी हिस्सा था, जो अब बढ़कर 32 फ़ीसदी पर पहुंच गया है। वाह ! क्या तरक्की की है डीजल कार ने |
पेट्रोल के दाम बढा़ने के बाद सरकार अब संभवतः डीजल, रसोई गैस और मिट्टी तेल के दाम में भी संशोधन का फैसला कर सकती है। इस बारे में निर्णय लेने के लिये वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में गठित मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह की बैठक होनी भी तय है । कहा जा रहा है कि डीजल, एलपीजी रसोई गैस और राशन की दुकानों से बिकने वाले मिट्टी के तेल के दाम बढ़ने तय हैं। मंत्री समूह को केवल यह तय करना है कि इसमें कितनी वृद्धि की जाए। अभी पेट्रोल कि बढ़ी कीमतों ने डीजल कार की मांग में इजाफा कर दिया पर आगे भविष्य क्या??? जनता सरकार को समस्याओं से निजात पाने के लिए चुनती है न कि समस्याओं में इजाफे के लिए | मौजूदा सरकार में हर प्रकार के बेईमान बैठे है साथ ही महंगाई , चोरी , लूट , घोटाला , रिश्वतखोरी , अफसर शाही ,जैसे सारे गैर क़ानूनी कार्य हो रहे है ! आखिर बात क्या है ? देश की जनता जिस महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर रही है, उस पर सरकार इतनी लाचार, निष्क्रिय और दिशाहीन क्यों दिखाई दे रही है? जबकि यह महंगाई कोई नयी तात्कालिक मुसीबत नहीं है। पिछले दो-तीन सालों से इसकी मार पड़ रही है। इन तमाम सवालो का दूर दूर तक कोई जवाब नहीं दिखाई पड़ता |
आम जनता कि हाथ में अगर चुनाव के दौरान वोट जैसा कीमती हथियार है तो और बहुत से उपाय भी हैं जिनसे वो सरकार की सीनाजोरी और ठगी से बच सकती है | यदि तेल के दाम घटना हमारे हाथ में नहीं तो क्या??? इस अपनी कुछ आदतों को सुधारकर तेल के उपयोग को कम कर सकते है और जितना हो उसकी बचत कर सकते है | इसके लिए पब्लिक ट्रांसपोरटेशन का उपयोग करना चाहिए और अपने वाहनों का रखरखाव भी अच्छे से करना चाहिए एवम सिग्नल पे वाहनों को बन्द करना देना चाहिए साथ ही 'कार पूल'को अपना कर समस्या की गंभीरता से बचा भी जा सकता है , क्योंकि तेल कंपनिया और सरकार आये दिन इसी तरह से कीमते बढाती रहेगी और मुनाफे में कमी को घाटा बताकर हमारी जेबे ढीली करती रहेगी अब यह हम पर निर्भर है की हम इसमें से कैसे बचे और हो सके उतना तेल बचाए |
डॉ. वन्दना सिंह .
बुधवार, 18 मई 2011
रैगिंग : परिचय परंपरा या यातना
नया सत्र शुरू होने को है...कॉलेज और कैम्पस में गहमागहमी बढ़ने लगी है और साथ ही बढ़ रहा है उन छात्रों का उत्साह और रोमांच जो पहली बार कॉलेज जायेंगे | देश के सामाजिक , राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं का जिस कदर अवमूल्यन होता जा रहा है, उसे देखते हुए शैक्षिक संस्थाओं की परम्परागत सम्रद्धता और गरिमा के बचे रह पाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती | कुछ दशक पहले तक शिक्षण संस्थाओं में 'स्वागत' या 'परिचय समारोहों' के जरिये नए और पुराने छात्र प्रेम और सदभाव के माहौल में एक दूसरे को अपना परिचय दिया करते थे | हर साल सत्र की शुरुवात में स्कूल , कॉलेज , और युनिवर्सिटी प्रशासन रैगिंग को रोकने के लिए तमाम उपाय बरतने की कोशिश करते हैं , इसके बावजूद रैगिंग की अप्रिय घटनाएं घटती रहती हैं | देखा जाए तो रैगिंग शब्द का अर्थ चिढाने , छेडने और सताने से सम्बंधित ही होता है | १७९० और १८०० के बीच का समय था जब ब्रिटेन में ये शब्द प्रचलित हुआ , बस तभी से शुरू हों गई रैगिंग की परंपरा | भारत में कलकत्ता का फोर्ट विलियम कॉलेज १८०० और मद्रास का सेंट जॉर्ज कॉलेज १८१२ में स्थापित हुए | ये दोनों कॉलेज ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित कॉलेज थे और अंग्रेजी शासन काल में जो अनेक अच्छी बुरी परम्पराएं हमारे देश में विकसित हुई रैगिंग भी उनमे से एक है |
आमतौर पर भारत में स्कूल से कॉलेज तक आते आते छात्र वर्ग १८-१९ वर्ष की आयु तक पहुँच जाता है और स्कूल के अनुशासन भरे माहौल से निकल स्वछंद और रोमांच से भरे जीवन में प्रवेश करता है | दूसरा और तीसरा साल होते होते उन्हें 'गुरु'',उस्ताद,'बिग ब्रदर', या 'बॉस ' जैसी उपाधियां भी मिलने लगती हैं | अब यही वर्ग नए विद्यार्थियों का स्वागत 'रैगिंग' से करते हैं | मूल रूप से रैगिंग प्रथा में कोई बुराई नजर नहीं आती | छात्र जीवन में , वयस्कता की देहरी पर पहुँचकर , नए अनुभवों और आस्वादों का दौर शुरू होता है | एक प्रकार से वह पारिवारिक और स्कूल की अनुशासनीय छाया से थोडा मुक्त होकर खुले संसार में आता है जो पहले पहल बहुत रोमानी दिखता है , फिर यथार्थ की कठोरताओं का परिचय मिलना शुरू होता है रैगिंग के रूप में उसकी मासूमियत पर पहली चोट लगती है और उसे कठोर धरती का अहसास होता है | सच तो यह है कि हल्के-फुल्के मजाक के जरिये नए विद्यार्थी को नए वातावरण में अपने आपको समरस बनाने में सहायता मिलती है | यदि रैगिंग इसी सन्दर्भ में हों तो स्वस्थ और लाभदायक सिद्ध होती है | पर जब इसमें अपराध वृत्ति और असामाजिकता जुड जाती है या सीनियर छात्रों का वर्ग जब इसमें परपीडन का स्वाद लेने लगता है तो नए विद्यार्थी के लिए यह सुखद अनुभव ना होकर एक क्रूर हादसा बन जाता है |
पिछले दो ढाई दशको में देश के सार्वजानिक जीवन में अपराधिकरण के साथ साथ परपीडन की मनोवैज्ञानिक विकृति का भी बहुत फैलाव हुआ है | रैगिंग के नाम पर परपीडन , मजा लेने , 'टू हैव् फन' की मनोवृत्ति ने बहुत से नए स्टूडेंट को कॉलेज जीवन के पहले ही दिन ऐसा अनुभव दे दिया है जो लंबे समय तक कड़वी याद बन कर उनके साथ जीता है | हास-परिहास में विकृतियों और कुत्सित हरकतों के सम्मिश्रण से स्वस्थ परंपरा का विनाश हों रहा है | रैगिंग भी ऐसी स्थति में है , जिसके नाम से घबराहट और चिढ होने लगती है | कई बार तो पीड़ित छात्र इतना व्यथित हों जाता है कि आत्महत्या जैसा निंदनीय काम तक कर बैठता है |
शिक्षण संस्थाओं में सही मायनों में रैगिंग के विकल्पों को बढ़ावा देना चाहिए | इसमें विभिन्न छात्र संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं | नया सत्र शुरू होने के कुछ समय बाद कॉलेज और यूनिवर्सिटी में 'स्टूडेंट यूनियन' के चुनाव होते हैं | इन दिनों विभिन्न छात्र संगठनों और उम्मीदवारों द्वारा नए विद्यार्थियों स्वागत किया जाता है | इस तरह परिचय या स्नेह सम्मलेन आयोजित किये जा सकते हैं | यह रैगिंग का अच्छा विकल्प है | रैगिंग शक्ति प्रदर्शन , क्रूरता , कामुकता , असंवेदनशीलता का भाव ना हो कर नए छात्रों के मन से संकोच के भाव को दूर करने और सकारात्मक उन्मुक्तताएं विकसित करने का माध्यम होनी चाहिए |
क़ानून के तहत शिक्षण संस्थानों में रैगिंग पर प्रतिबंध है और उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यदि शिक्षण संस्थानों में रैगिंग की किसी भी तरह की कोई घटना होती है तो इसका दायित्व संस्थान प्रमुख पर होता है | रैगिग लेने वाला युवा वर्ग अधकचरी उम्र का अपरिपक्व किशोर होता है , रैगिग के अनेकानेक कारण है , यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या भी है , न कि केवल अपराधिक .. इस समस्या का निदान वैचारिक समझ , अपराधिक नियंत्रण , छात्रो पर अनुशासन का अंकुश , जागरूकता सबके मिलेजुले अभियान से ही हो सकता है |
डॉ. वन्दना सिंह
बुधवार, 4 मई 2011
उन्हें मेरा नाम भी याद आए..
उन्हें मेरा ख्याल भी तडपाए...
उनके दिलदादन* हम भी हैं..
उन्हें मेरा ख्याल भी तडपाए...
उनके दिलदादन* हम भी हैं..
उन तक कैसे ये सदा जाए....
नादाँ तोनहीं थे इतने भी...
उनकी नज़रें न समझ पाए..
कोई ढूँढेगा महफिल में उन्हें...
ये जान के भी वो नहीं आए...
जुल्मों की हद बस हो भी चुकी...
अब नज़रे इनायत की जाए...
तुम दोस्त हुए अफसाना बना...
फितरत दुनिया की नहीं जाए...
कहते थे खुद को आइना जो..
इक बार न अक्स दिखा पाए...
नादाँ तोनहीं थे इतने भी...
उनकी नज़रें न समझ पाए..
कोई ढूँढेगा महफिल में उन्हें...
ये जान के भी वो नहीं आए...
जुल्मों की हद बस हो भी चुकी...
अब नज़रे इनायत की जाए...
तुम दोस्त हुए अफसाना बना...
फितरत दुनिया की नहीं जाए...
कहते थे खुद को आइना जो..
इक बार न अक्स दिखा पाए...
...वन्दना.....
*(आशिक होना)
गुरुवार, 31 मार्च 2011
मानव
मानव -संसार में सर्वत्र सर्वोच्च
उच्चतर व्यक्तित्व का अन्वेषी ,
आलोकित - 'सत्यम , शिवम , सुन्दरम ' की
गहन अनुभूतियों से...
सक्षम धरती की धुल में फूल खिलाने में....
सर्वश्रेष्ठ कृति - प्रकृति की------मानव !
***************************
मानव - मानवीय यथार्थ के मरण
और ,
अमूर्त यथार्थ के आरोपण
की व्यथा झेलता....
नियातियों में बंधा / विवश
संभावनाओं एवं आश्वासनों को तलाशता
जीवन और मृत्यु की
उठती - गिरती साँसों पर
डगमगाती छवि - शक्ति की --------मानव !
.....वन्दना.......
उच्चतर व्यक्तित्व का अन्वेषी ,
आलोकित - 'सत्यम , शिवम , सुन्दरम ' की
गहन अनुभूतियों से...
सक्षम धरती की धुल में फूल खिलाने में....
सर्वश्रेष्ठ कृति - प्रकृति की------मानव !
***************************
मानव - मानवीय यथार्थ के मरण
और ,
अमूर्त यथार्थ के आरोपण
की व्यथा झेलता....
नियातियों में बंधा / विवश
संभावनाओं एवं आश्वासनों को तलाशता
जीवन और मृत्यु की
उठती - गिरती साँसों पर
डगमगाती छवि - शक्ति की --------मानव !
.....वन्दना.......
विकास के साथ घटती सामाजिक नैतिकता....
विकास और आधुनिकता की पहचान समाज में 'समानता ' को माना जाता है जो सीधे सीधे उम्र, लिंग, जाति आदि के आधार पर ही परिभाषित की जाती है | यही समानता समाज की अर्थव्यवस्था , परम्परा और परिवेश इत्यादि में भी समाहित होने पर विकास की उन्नत अवस्था का आभास होता है | परन्तु, गौर करे तो आधुनिकता , पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण और तकनीकी सुख सुविधाएँ ही विकास की पहचान के रूप में समाज में मानी जाती हैं |
हमारे देश में स्त्री - पुरुष के बीच की असमानता आज भी जस की तस है | समाज में बराबरी के नारे लगाती स्त्री , अपने हक की लड़ाई लड़ते लड़ते भी पुरुष प्रधान समाज में फैली विसंगतियों को झेल रही है |आधुनिकता के भंवर में फंसी स्त्री 'ग्लेमर' युक्त चकाचौंध से भरा जीवन जीने के लिए एह हद तक कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार दिखाई देती है |
भारत कि राजधानी दिल्ली समेत सभी महानगर , पूंजीवाद आधुनिकता (पश्चिमी सभ्यता) और 'साइबर क्राइम' (जिसमे तकनीकी विकास का सहारा लेकर आपराधिक कार्य किये जाते हैं ), जो आज के दौर की नौजवान पीढ़ी में एक संक्रमण की तरह फ़ैल रहा है , की गिरफ्त में सांस्कृतिक संकटो से जूझ रहे है ,बल्कि इसके प्रभाव से उजागर हो रही है लोगो की कुत्सित मानसिकता | इस चरित्रिक पतन को देश के हर तबके में देखा जा सकता है |
बढ़ते विकास के साथ आपराधिक घटनाओं का बढ़ जाना बेहद दुखद है | कुछ समय पहले एक सर्वे किया गया और पाया गया कि लगभग हर १६ घंटे में दिल्ली में होता है एक बलात्कार | हाल ही में एक प्रमुख दैनिक अखबार में छपी खबर में कहा गया कि भारत में हर ४ में से एक १ बलात्कार की घटना देश कि राजधानी दिल्ली में घटित होती है | गंभीर बात यह है की इसकी शिकार ज्यादातर कम उम्र की बालिकाएं हो रही हैं | गौरतलब बात यह है कि विकास के नाम पर उन्मुक्त परिवेश में यौन स्वछंदता बढ़ रही है , नतीजतन पारिवारिक रिश्तों कि विश्वसनीयता घट रही है | बुद्धिजीवी वर्ग भी इससे अछूता नही है | कुल मिला कर समाज में विकास के नाम पर फैली असमानता इसका प्रमुख कारण है | जहां पिछड़ा वर्ग किसी भी प्रकार उच्चतर जीवन की चमक दमक से प्रभवित हो कर उसे जीने की लालसा में अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है |
आज हम जिस व्यवस्था मे रह रहे है वह हमारी संवेदना और हमारी इंसानियत पर प्रश्नचिह्न लगाती है | दिल्ली के आलीशान बंगलों से लेकर झुग्गी-झोपड़ी तक यह समस्या बनी हुई है | यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि नई चुनौतियों के बीच हम एक यांत्रिक , संवेदना हीन , पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बने या फिर महज मानवीय मूल्यों एवं संबंधों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करें |
-डॉ. वन्दना सिंह
हमारे देश में स्त्री - पुरुष के बीच की असमानता आज भी जस की तस है | समाज में बराबरी के नारे लगाती स्त्री , अपने हक की लड़ाई लड़ते लड़ते भी पुरुष प्रधान समाज में फैली विसंगतियों को झेल रही है |आधुनिकता के भंवर में फंसी स्त्री 'ग्लेमर' युक्त चकाचौंध से भरा जीवन जीने के लिए एह हद तक कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार दिखाई देती है |
भारत कि राजधानी दिल्ली समेत सभी महानगर , पूंजीवाद आधुनिकता (पश्चिमी सभ्यता) और 'साइबर क्राइम' (जिसमे तकनीकी विकास का सहारा लेकर आपराधिक कार्य किये जाते हैं ), जो आज के दौर की नौजवान पीढ़ी में एक संक्रमण की तरह फ़ैल रहा है , की गिरफ्त में सांस्कृतिक संकटो से जूझ रहे है ,बल्कि इसके प्रभाव से उजागर हो रही है लोगो की कुत्सित मानसिकता | इस चरित्रिक पतन को देश के हर तबके में देखा जा सकता है |
बढ़ते विकास के साथ आपराधिक घटनाओं का बढ़ जाना बेहद दुखद है | कुछ समय पहले एक सर्वे किया गया और पाया गया कि लगभग हर १६ घंटे में दिल्ली में होता है एक बलात्कार | हाल ही में एक प्रमुख दैनिक अखबार में छपी खबर में कहा गया कि भारत में हर ४ में से एक १ बलात्कार की घटना देश कि राजधानी दिल्ली में घटित होती है | गंभीर बात यह है की इसकी शिकार ज्यादातर कम उम्र की बालिकाएं हो रही हैं | गौरतलब बात यह है कि विकास के नाम पर उन्मुक्त परिवेश में यौन स्वछंदता बढ़ रही है , नतीजतन पारिवारिक रिश्तों कि विश्वसनीयता घट रही है | बुद्धिजीवी वर्ग भी इससे अछूता नही है | कुल मिला कर समाज में विकास के नाम पर फैली असमानता इसका प्रमुख कारण है | जहां पिछड़ा वर्ग किसी भी प्रकार उच्चतर जीवन की चमक दमक से प्रभवित हो कर उसे जीने की लालसा में अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है |
आज हम जिस व्यवस्था मे रह रहे है वह हमारी संवेदना और हमारी इंसानियत पर प्रश्नचिह्न लगाती है | दिल्ली के आलीशान बंगलों से लेकर झुग्गी-झोपड़ी तक यह समस्या बनी हुई है | यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि नई चुनौतियों के बीच हम एक यांत्रिक , संवेदना हीन , पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बने या फिर महज मानवीय मूल्यों एवं संबंधों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करें |
-डॉ. वन्दना सिंह
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