नया सत्र शुरू होने को है...कॉलेज और कैम्पस में गहमागहमी बढ़ने लगी है और साथ ही बढ़ रहा है उन छात्रों का उत्साह और रोमांच जो पहली बार कॉलेज जायेंगे | देश के सामाजिक , राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं का जिस कदर अवमूल्यन होता जा रहा है, उसे देखते हुए शैक्षिक संस्थाओं की परम्परागत सम्रद्धता और गरिमा के बचे रह पाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती | कुछ दशक पहले तक शिक्षण संस्थाओं में 'स्वागत' या 'परिचय समारोहों' के जरिये नए और पुराने छात्र प्रेम और सदभाव के माहौल में एक दूसरे को अपना परिचय दिया करते थे | हर साल सत्र की शुरुवात में स्कूल , कॉलेज , और युनिवर्सिटी प्रशासन रैगिंग को रोकने के लिए तमाम उपाय बरतने की कोशिश करते हैं , इसके बावजूद रैगिंग की अप्रिय घटनाएं घटती रहती हैं | देखा जाए तो रैगिंग शब्द का अर्थ चिढाने , छेडने और सताने से सम्बंधित ही होता है | १७९० और १८०० के बीच का समय था जब ब्रिटेन में ये शब्द प्रचलित हुआ , बस तभी से शुरू हों गई रैगिंग की परंपरा | भारत में कलकत्ता का फोर्ट विलियम कॉलेज १८०० और मद्रास का सेंट जॉर्ज कॉलेज १८१२ में स्थापित हुए | ये दोनों कॉलेज ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित कॉलेज थे और अंग्रेजी शासन काल में जो अनेक अच्छी बुरी परम्पराएं हमारे देश में विकसित हुई रैगिंग भी उनमे से एक है |
आमतौर पर भारत में स्कूल से कॉलेज तक आते आते छात्र वर्ग १८-१९ वर्ष की आयु तक पहुँच जाता है और स्कूल के अनुशासन भरे माहौल से निकल स्वछंद और रोमांच से भरे जीवन में प्रवेश करता है | दूसरा और तीसरा साल होते होते उन्हें 'गुरु'',उस्ताद,'बिग ब्रदर', या 'बॉस ' जैसी उपाधियां भी मिलने लगती हैं | अब यही वर्ग नए विद्यार्थियों का स्वागत 'रैगिंग' से करते हैं | मूल रूप से रैगिंग प्रथा में कोई बुराई नजर नहीं आती | छात्र जीवन में , वयस्कता की देहरी पर पहुँचकर , नए अनुभवों और आस्वादों का दौर शुरू होता है | एक प्रकार से वह पारिवारिक और स्कूल की अनुशासनीय छाया से थोडा मुक्त होकर खुले संसार में आता है जो पहले पहल बहुत रोमानी दिखता है , फिर यथार्थ की कठोरताओं का परिचय मिलना शुरू होता है रैगिंग के रूप में उसकी मासूमियत पर पहली चोट लगती है और उसे कठोर धरती का अहसास होता है | सच तो यह है कि हल्के-फुल्के मजाक के जरिये नए विद्यार्थी को नए वातावरण में अपने आपको समरस बनाने में सहायता मिलती है | यदि रैगिंग इसी सन्दर्भ में हों तो स्वस्थ और लाभदायक सिद्ध होती है | पर जब इसमें अपराध वृत्ति और असामाजिकता जुड जाती है या सीनियर छात्रों का वर्ग जब इसमें परपीडन का स्वाद लेने लगता है तो नए विद्यार्थी के लिए यह सुखद अनुभव ना होकर एक क्रूर हादसा बन जाता है |
पिछले दो ढाई दशको में देश के सार्वजानिक जीवन में अपराधिकरण के साथ साथ परपीडन की मनोवैज्ञानिक विकृति का भी बहुत फैलाव हुआ है | रैगिंग के नाम पर परपीडन , मजा लेने , 'टू हैव् फन' की मनोवृत्ति ने बहुत से नए स्टूडेंट को कॉलेज जीवन के पहले ही दिन ऐसा अनुभव दे दिया है जो लंबे समय तक कड़वी याद बन कर उनके साथ जीता है | हास-परिहास में विकृतियों और कुत्सित हरकतों के सम्मिश्रण से स्वस्थ परंपरा का विनाश हों रहा है | रैगिंग भी ऐसी स्थति में है , जिसके नाम से घबराहट और चिढ होने लगती है | कई बार तो पीड़ित छात्र इतना व्यथित हों जाता है कि आत्महत्या जैसा निंदनीय काम तक कर बैठता है |
शिक्षण संस्थाओं में सही मायनों में रैगिंग के विकल्पों को बढ़ावा देना चाहिए | इसमें विभिन्न छात्र संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं | नया सत्र शुरू होने के कुछ समय बाद कॉलेज और यूनिवर्सिटी में 'स्टूडेंट यूनियन' के चुनाव होते हैं | इन दिनों विभिन्न छात्र संगठनों और उम्मीदवारों द्वारा नए विद्यार्थियों स्वागत किया जाता है | इस तरह परिचय या स्नेह सम्मलेन आयोजित किये जा सकते हैं | यह रैगिंग का अच्छा विकल्प है | रैगिंग शक्ति प्रदर्शन , क्रूरता , कामुकता , असंवेदनशीलता का भाव ना हो कर नए छात्रों के मन से संकोच के भाव को दूर करने और सकारात्मक उन्मुक्तताएं विकसित करने का माध्यम होनी चाहिए |
क़ानून के तहत शिक्षण संस्थानों में रैगिंग पर प्रतिबंध है और उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यदि शिक्षण संस्थानों में रैगिंग की किसी भी तरह की कोई घटना होती है तो इसका दायित्व संस्थान प्रमुख पर होता है | रैगिग लेने वाला युवा वर्ग अधकचरी उम्र का अपरिपक्व किशोर होता है , रैगिग के अनेकानेक कारण है , यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या भी है , न कि केवल अपराधिक .. इस समस्या का निदान वैचारिक समझ , अपराधिक नियंत्रण , छात्रो पर अनुशासन का अंकुश , जागरूकता सबके मिलेजुले अभियान से ही हो सकता है |
डॉ. वन्दना सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रिया निश्चित रूप से प्रेरणा प्रसाद :)