विकास और आधुनिकता की पहचान समाज में 'समानता ' को माना जाता है जो सीधे सीधे उम्र, लिंग, जाति आदि के आधार पर ही परिभाषित की जाती है | यही समानता समाज की अर्थव्यवस्था , परम्परा और परिवेश इत्यादि में भी समाहित होने पर विकास की उन्नत अवस्था का आभास होता है | परन्तु, गौर करे तो आधुनिकता , पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण और तकनीकी सुख सुविधाएँ ही विकास की पहचान के रूप में समाज में मानी जाती हैं |
हमारे देश में स्त्री - पुरुष के बीच की असमानता आज भी जस की तस है | समाज में बराबरी के नारे लगाती स्त्री , अपने हक की लड़ाई लड़ते लड़ते भी पुरुष प्रधान समाज में फैली विसंगतियों को झेल रही है |आधुनिकता के भंवर में फंसी स्त्री 'ग्लेमर' युक्त चकाचौंध से भरा जीवन जीने के लिए एह हद तक कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार दिखाई देती है |
भारत कि राजधानी दिल्ली समेत सभी महानगर , पूंजीवाद आधुनिकता (पश्चिमी सभ्यता) और 'साइबर क्राइम' (जिसमे तकनीकी विकास का सहारा लेकर आपराधिक कार्य किये जाते हैं ), जो आज के दौर की नौजवान पीढ़ी में एक संक्रमण की तरह फ़ैल रहा है , की गिरफ्त में सांस्कृतिक संकटो से जूझ रहे है ,बल्कि इसके प्रभाव से उजागर हो रही है लोगो की कुत्सित मानसिकता | इस चरित्रिक पतन को देश के हर तबके में देखा जा सकता है |
बढ़ते विकास के साथ आपराधिक घटनाओं का बढ़ जाना बेहद दुखद है | कुछ समय पहले एक सर्वे किया गया और पाया गया कि लगभग हर १६ घंटे में दिल्ली में होता है एक बलात्कार | हाल ही में एक प्रमुख दैनिक अखबार में छपी खबर में कहा गया कि भारत में हर ४ में से एक १ बलात्कार की घटना देश कि राजधानी दिल्ली में घटित होती है | गंभीर बात यह है की इसकी शिकार ज्यादातर कम उम्र की बालिकाएं हो रही हैं | गौरतलब बात यह है कि विकास के नाम पर उन्मुक्त परिवेश में यौन स्वछंदता बढ़ रही है , नतीजतन पारिवारिक रिश्तों कि विश्वसनीयता घट रही है | बुद्धिजीवी वर्ग भी इससे अछूता नही है | कुल मिला कर समाज में विकास के नाम पर फैली असमानता इसका प्रमुख कारण है | जहां पिछड़ा वर्ग किसी भी प्रकार उच्चतर जीवन की चमक दमक से प्रभवित हो कर उसे जीने की लालसा में अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है |
आज हम जिस व्यवस्था मे रह रहे है वह हमारी संवेदना और हमारी इंसानियत पर प्रश्नचिह्न लगाती है | दिल्ली के आलीशान बंगलों से लेकर झुग्गी-झोपड़ी तक यह समस्या बनी हुई है | यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि नई चुनौतियों के बीच हम एक यांत्रिक , संवेदना हीन , पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बने या फिर महज मानवीय मूल्यों एवं संबंधों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करें |
-डॉ. वन्दना सिंह
"शब्द संवेदन" संवेदन शील मन से निकलने वाले शब्द जो स्वरुप ले लेते हैं कविता का, ग़ज़ल का,नज़्म का... लेखनी के सहारे,अभिव्यक्ति का आधार हमारे शब्द संवेदन इंसानी जीवन की अहम् जरूरत हैं. और अभिव्यक्ति वाकई जीवन को हल्का,सहज और सरल बना देती है.बेशक महज़ आत्मसंतुष्टि के लिए नहीं बल्कि जिंदगी के अनुभव भी ,चाहे खट्टे हो या फिर मीठे,संवेदनाओं को शब्दों में पिरोने और अभिव्यक्त करने के साथ ही हमारे सोच विचारों के झंझावातों में फंसे दिल और दिमाग को शांत कर देते हैं. "शब्द संवेदन" पर आप सभी का स्वागत है.
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