मृत्यु...सुखद चाह या दुखद आह! कौन तय करेगा ?
कहते हैं चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य के रूप में जीवन मिलता है ,मगर दूसरी ओर ईश्वर के दिए इस अनमोल जीवन की कुछ विसंगतियाँ ऐसी होती हैं जिनसे लड़ पाना मनुष्य जीवन के लिए असम्भव हो जाता है और वह ख़ुद अपने ही जीवन का अंत करना चाहने लगता है । भारतीय दर्शन को ध्यान में रखकर बात की जाए तो यह कहीं से भी अनुचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि गीता में जहां एक ओर यह कहा गया है की मृत्यु के लिए शोक व्यर्थ है और पुनर्जन्म की अवधारणा भी है वहीँ बौद्ध तथा जैन धर्म में यह स्पष्ट रूप से माना जाता है की जीव अनेक बार जन्म लेता है जब तक वह निर्वाण / मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेता या दूसरे शब्दों में जीवन मृत्यु के बंधन से मुक्त नहीं हो जाता ।
पुराणों की माने तो भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था , भगवान श्री राम और लक्ष्मण ने भी स्वेच्छा से सरयू नदी में जल समाधि ली और माता सीता ने भी धरती में समा कर प्राण त्यागे थे।
इतना ही नहीं कई ऋषि मुनियों ने भी समाधि ली है, जैन धर्म की संथारा प्रथा भी इच्छा मृत्यु से जुड़ी है। स्वामी विवेकानंद, पंडित श्री राम शर्मा और विनोबा भावे ये वो नाम हैं जो कहीं ना कहीं स्वेच्छा से प्राण त्यागने की परम्परा से जुड़े हैं।
इसी परम्परा में एक और नाम रहा है सती प्रथा का।
ऐसे बहुत से कारण होते हैं जिनमें इंसान शारीरिक या मानसिक तौर पर और कभी कभी भावनात्मक रूप से भी इतना बीमार और कमजोर हो जाता है कि उसे जीवन असहनीय लगने लगता है, और ऐसे में जीवन का अंत कर देना ही एकमात्र रास्ता नज़र आता है। तो क्यूँ ना इंसान ख़ुद अपने जीवन के अंत का अधिकारी हो? ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर खुल कर चर्चा करना सहज नहीं है।
इच्छा मृत्यु जीवन का एक ऐसा अनछुआ पहलू है जिसके बारे में हम अमूमन खुल कर बात नहीं करना चाहते हालाँकि इच्छा मृत्यु पर देश विदेश में कई फिल्में बन चुकी हैं. 2010 में देश में बनी ‘गुजारिश’ नाम की फिल्म ने लोगों का ध्यान खींचा था और क्रिटिक्स की ख़ूब प्रशंसा मिली ।
ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय बच्चन स्टारर इस फिल्म की कहानी एक ऐसे व्यक्ति पर आधारित थी, जो जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाने के बाद इच्छा मृत्यु पाने का फैसला करता है। इसके अलावा कई ऐक्टिविस्ट और ब्लॉगर्स ग्रूप भी इस विषय पर आवाज़ उठाते रहे हैं।
दुनिया भर में ऐसे बहुत से केस देखे गए हैं जहां क़ानूनन ऐसी व्यवस्था या कहें नियम तथाकथित बीमार व्यक्ति के लिए बनाए जा चुके हैं, जिसे जाना जाता है इच्छामृत्यु, Euthanasia या Mercy Killing के नाम से।
अमेरिका,बेल्जियम,कनाडा,कोलम्बि
इच्छा मृत्यु दो तरह की हो सकती है. पहली एक्टिव यूथेनेशिया यानी सक्रिय इच्छा मृत्यु और दूसरी पैसिव यूथेनेशिया यानी निष्क्रिय इच्छामृत्यु. सक्रिय इच्छामृत्यु में लाइलाज बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के जीवन का अंत डॉक्टर की सहायता से किया जा सकता है, जिसमें उसे जहर का इंजेक्शन देने जैसा खतरनाक कदम भी शामिल हैं।
वहीं, निष्क्रिय इच्छामृत्यु यानी ऐसे मामले, जहां लाइलाज बीमारी से पीड़ित व्यक्ति लंबे समय से कोमा में हो, तब रिश्तेदारों की सहमति से डॉक्टर उसका लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम यानी जीवन रक्षक उपकरण बंद कर देते हैं और उनकी मौत हो जाती है।
हक़ीक़त तो ये है कि स्वस्थ जीवन सभी का अधिकार है। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘राइट टू लिव’ का अधिकार भी देता है-
जिसके तहत देश का संविधान प्रत्येक नागरिक को सार्थक, संपूर्ण एवं गौरवशाली जीवन जीने का अधिकार है, और राज्य इसके संरक्षण को बाध्य है। क़ानून के नज़रिए से भारत में इच्छा-मृत्यु और दया मृत्यु दोनों ही अवैधानिक माने गए हैं और आईपीसी यानी भारतीय दंड विधान की धारा 309 के तहत यह आत्महत्या के बराबर अपराध है.
तो क्या मनुष्य को इच्छा से मरने का अधिकार नहीं है? ‘राइट टू डाई’ को संवैधानिक चुनौती सबसे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट के स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम मारुती श्रीपति दुबल केस (1986) में दी गयी थी , जब हाईकोर्ट ने भारतीय दण्ड विधान की धारा 309 (अपराध आत्मदाह) को असंवैधानिक माना। फिर उच्चतम न्यायालय ने पी.राथिनाम बनाम भारतीय संघ केस (1994) में बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को दोहराया। माकपा नेता बी.टी. रणदिवे भी रक्त-कैंसर की असहनीय पीड़ा झेलते हुए मुंबई के अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तब उन्होंने इच्छामृत्यु की मांग की थी। लेकिन इस विषय में कोई कानून न होने की वज़ह से उनको यह अनुमति नहीं मिली। यदि उस समय कानून यह अनुमति देता तो यह सक्रिय इच्छामृत्यु होती क्योंकि असाध्य रोग से मुक्ति और असहनीय कष्ट के निवारण के लिये मरीज़ की मांग पर चिकित्सक उन्हें मृत्यु की दवा देते।
1996 में उच्चतम न्यायालय ने गिआन कौर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब केस में ‘राइट टू लाइफ में राइट टू डाई’ के 1986 के फैसले को रद्द किया। इसी के साथ देश में लाइलाज रोगियों के लिए दया मृत्यु के मसले ने तूल पकड़ा। यह सवाल सब से चिंताजनक रहा कि जिन हालातों में गौरवशाली ‘राइट टू लिव’ संभव न हो क्या तब इच्छा मृत्यु का अधिकार देना ठीक नहीं होगा। फिर 2017 में 11 अक्टूबर को तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा, ए.के. सिकरी, ए.एम. खानविलकर, डी.वाई. चंद्रचूड़ और अशोक भूषणकी पीठ ने ‘कॉमन कॉज’ एनजीओ की याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था, और 9 मार्च 2018 को इस पर फैसला सुनाया।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भी आशंका जाहिर की थी कि कई परिवारों में बुजुर्गों को बोझ समझा जाता है और ऐसे में उन्हें उनके संबंधियों द्वारा इच्छा मृत्यु दिए जाने का खतरा है. इस मुद्दे से मेडिकल और सामाजिक पहलू भी जुड़े हुए हैं।
भारत में इच्छा मृत्यु पर सबसे बड़ी बहस बहुचर्चित ‘अरुणा शानबाग’ केस से हुई। अरुणा मुंबई के एक अस्पताल में नर्स थी, जब 1973 में उनके साथ अस्पताल में ही बलात्कार हुआ जिसके कारण उन्हें गंभीर चोटें आईं और उनका शरीर लकवाग्रस्त एवं दिमाग मृत हो चुका था। वर्ष 2009 में अरुणा के लिए दया मृत्यु की याचिका उच्चतम न्यायलय में दायर की गई। अरुणा 42 साल से अस्पताल में जिंदा लाश जैसी रहीं और वर्ष 2015 में उनका निधन हुआ।
ऐसे ही वर्ष 2004 में शतरंज खिलाडी के.वेंकटेश मस्कुलर डिसट्रॉफी से पीड़ित हुए और उन्हें 7 माह से अधिक काल तक जीवन रक्षक प्रणाली पर रख गया। उनकी दया मृत्यु याचिका को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायलय ने ख़ारिज किया था। ऐसे ही बहुचर्चित मामलों में अमेरिका की टेरी शियावो का केस रहा। 27 वर्षीय टेरी दिल का दौरा पड़ने से कोमा में चली गई। उनकी दया मृत्यु हेतु फ्लोरिडा की अदालत ने खाना खिलाने वाली नली हटाने का आदेश दिया, तो मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ गया। और तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने उन्हें जिंदा रखने हेतु कानून लाने की पहल की।
ऐसे ही वर्ष 1960 में 21 वर्षीय अमेरिकन करेन क्वीनलेन जो काफी समय से स्थायी कोमा में थी, उनके माता-पिता उनका वेंटीलेटर हटाए जाने का केस जीत गए थे। इस जीत ने पूरे अमेरिका में मौत के अधिकार पर बहस छेड़ दी थी। स्पेन के रेमोन सैनपेद्रो जिनका गर्दन के नीचे का पूरा शरीर लकवाग्रस्त था, उन्होंने स्वयं आत्मदाह हेतु 29 वर्ष तक लड़ाई लड़ी और मुक़दमा हार गए। 1998 में वह कई लोगों को जुटा के खुद को ज़हर देने में सफल रहे। इस प्रकार के तमाम मामले पूरे विश्व में इच्छा मृत्यु के विवाद को बल देते रहे हैं।
ख़ैर मृत्यु के प्रतीक्षारत वो वृद्ध जिनकी आवश्यकता उनकी संतान तक को नहीं ,या वो मनुष्य जो किसी असाध्य बीमारी के कष्ट से पीड़ित हैं , जिनका भरण पोषण भी सहज नहीं अपितु कष्ट सहन करने के लिए विवश हैं उनके लिए इच्छा मृत्यु का विकल्प निसंदेह कहीं ना कहीं सुखद ही है, समाज में मनोवैज्ञानिक स्तर पर सुविधाओं को बढ़ावा देकर कुछ हद तक समस्याओं को कम तो किया ही जा सकता है किंतु इसके लिए जीवट होना भी ज़रूरी है।
मानवीय अविश्वसनीयता और बौद्धिक जिज्ञासा कभी कभी ऐसे छोर पर ले जा कर छोड़ देती है जहां हम निरे अनुत्तरित रह जाते हैं। यह संभवतः ऐसी ही समस्या है जिसे अक्सर ही नकार दिया जाता है।
-डॉ वन्दना सिंह