आखिर
किस चाहना में
उपेक्षित
होती जा रही है
मानवीयता ?
संवेदनाओं में
पैशाचिकता का
उन्मुक्त प्रसार...
और भगवानों की
लम्बी कतार
का निरीह हो जाना
ड़बडबाती आँखों से
बुदबुदाती दुआओं
का भी पानी हो जाना
अब तो हो
कवायद शुरू
मानवीय चारित्रिक...
मूलभूत तत्वों को
बचाए रखने की
"-आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना !!"
बहुत खूब ...
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