शुक्रवार, 7 मार्च 2014

वक़्त...





वक़्त ! 

मुट्ठी में 
रेत सी  
फिसलती   
यादें और 
छूटे साथ  
मानो 
कांच की 
किरचियों पर 
खड़े हम 
तुझे तकते हैं

भ्रम नहीं 
रौशनी 
यकीनन 
मगर 
भ्रमित करते 
इंद्रधनुषी रंग
सजता है  
जिनसे एक  
सपनीला  
आसमान 
लहरों के 
ज्वार पर  
हम अपनी 
नैय्या खेते हैं  


कुछ
टूटे बिखरे  
कुछ 
छूटे - पल 
कुछ 
पुकार विकल 
कुछ 
मनुहार सजल 
कुछ दायरे  
निरर्थक...     
मन की अटल 
गहराइयों में 
जा बसा मौन  
विराट मरुस्थल 
की प्यास सा
अक्सर  
दरकाता है ये 
गर्वित खंडहर  
और हम 
एक स्वर की 
चाहना में 
अक्षर मोती 
पिरोते हैं 

5 टिप्‍पणियां:

  1. वक़्त पे सार्थक तप्सरा ...
    गुजर जाता है चुपके से .. खाली रह जाता है फिर ये वक़्त ... नयी चाहना लिए ...

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  2. waqt ki utha patak aur khobsoorat shabdon se saji rachna h di...
    regards!

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  3. नपे तुले शब्दों में सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  4. अनकहा अनसुना कितना कुछ रह गया वक़्त में खो गया...बस खोया नहीं जो वो है भावलहरों का ज्वार वो भी अपने पूरे वैभव के साथ है और रहेगा

    यादों बातों की

    किरचियाँ

    पसीजी हथेलियाँ

    चिपके चमकीले

    रेत कण

    कांपती पलकें

    इन्द्रधनुषी..

    चुभते कभी रंग

    हर आहट के संग

    रेगिस्तानी रेनू बेसाख्ता गर्म बेसाख्ता सर्द...अंतहीन तृषा...और मृगमरीचिका सा मौन नीर ...पी सको तो पी लो...बाकी 'बहाने' का क्या..कुछ तो भ्रम बना ही रहेगा ...आखिर मरुस्थल ले जलाशयों को छलकने का ठिकाना मिल जायेगा बहा देने से.
    mein वक़्त se relate kar rahi hun...vandana .....aur bahut se bhi zyada kar rahi hun.... aur mujhe apne saath baha le jaane ke liye bsnehsikt ashish ...mein hamesha behne keliye tatpar rahungi...

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आपकी प्रतिक्रिया निश्चित रूप से प्रेरणा प्रसाद :)