गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

गज़ल...



आरजू-ए-शफक तो है मगर आसमां से नहीं,
तलाश-ए-गुल भी है मगर गुलिस्ताँ से नही

मुद्दत से आँखों में समाये हुए हैं दरिया,
उमड़ता ही सैलाब-ए-अश्क पर मिशगाँ से नही

मस्लेहतों  ने छीन लिया जो कुछ भी था हासिल,
इस वक्त से मैं पस्त हूँ मगर इम्तेहां से नही

राहबर ही लूटते हैं इस जहान में ,
लगता है कारवां से डर बयाबाँ से नही
...वन्दना...

8 टिप्‍पणियां:

  1. आरजू-ए-शफक तो है मगर आसमां से नहीं,

    तलाश-ए-गुल भी है मगर गुलिस्ताँ से नही |

    मुद्दत से आँखों में समाये हुए हैं दरिया,

    उमड़ता ही सैलाब-ए-अश्क पर मिशगाँ से नही |

    मस्लेहतों ने छीन लिया जो कुछ भी था हासिल,

    इस वक्त से मैं पस्त हूँ मगर इम्तेहां से नही |

    राहबर ही लूटते हैं इस जहान में ,

    लगता है कारवां से डर बयाबाँ से नही |

    waah bahut khoob!!! ek ek misra khud me poori kahani bayaan karta hua.... kya shabd chune hain ..

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  2. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. वंदना जी , पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ... बहुत अच्छा लगा आपकी गज़ल पढ़कर... एक सुझाव है कि कठिन उर्दू शबों के हिंदी अर्थ साथ में अगर दें समझने में बहुत आसानी होगी .

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  4. शालिनी जी ,
    आपका और आपके सुझाव का हार्दिक अभिनन्दन करते हुए शुक्रिया भी कहना चाहूंगी जो आपने अपना मत व्यक्त किया |
    धन्यवाद ! :)

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  5. आदरेय वंदना जी, बधाई
    बहुत प्रभावपूर्ण गजल.
    कभी मेरे ब्लागgeetpath पर भी आएँ.

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आपकी प्रतिक्रिया निश्चित रूप से प्रेरणा प्रसाद :)