टिमटिमाते
डबडबाते
साँझ की बाती
डूब गयी
फिर गहन
अमावस
अंधियारे
मन के गहरे
गलियारे
जलते सपनों का
दीप जला
इक मन पिघला
कुछ रीत चला
धीमे धीमे
सन्नाटे में
कोई भेद खुला
और दूर
मुँडेरी पर बैठी
इक याद हंसी
रीते मन में
इक हूक उठी
इक टीस उठी
इक पत्ता टूटा
उस टहनी से
फिर एक नया
सपना सा गिरा
और टूटे कांच की
किरचों से
सपनों का
आशा दीप जला
किरणों का
रौशन जाल बुना
कुछ पल सरके
कुछ मन दरके
तारों का जाल
भी टूट गया
सपने जलाये
धीमे धीमे
फिर रात भी
थक कर
डूब गई
जलते सपनो
के दीये में
रात की बाती
डूब गयी