शुक्रवार, 24 मई 2013

मेरा वजूद दर्दे-ताब






न खार  न गुलाब 
मेरा वजूद दर्दे-ताब

फिर वही शामे मलाल
फिर खुली दिल की किताब

जो बढ़ने लगी तश्नगी
पाया लुत्फ ए चश्मे आब

चश्म ऐ पुरनम से देखो 
टपकने लगे रेज़ा ख्वाब 

जब की सुकूँ की तलाश 
दिया आईने ने जवाब

जो रूह मे बोये थे कभी    
सुखन मे ढूंढ़े वो ख्वाब 

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

यूं ही नहीं प्रेम शाश्वत है






तादात्मय सम्बन्ध 
जरुरी... 
दो पंखों के मध्य 
प्रेम की 
उड़ान के लिए !

और उतनी ही जरुरी 
स्वतंत्रता... 
गहरी जड़ों में 
बिना खोये 
अपनी  श्रद्धा और निष्ठा !
 
जैसे बूँद बूँद 
में है सक्षमता...
सागर  सृजन की 
और धरती में उपज की 

प्रेम में भी 
श्वास लेने की क्षमता 
ओसकण सी अनुभूति 
क्षण क्षण 
रखती है तरोताजा 

प्रेम में है प्रतिपल 
पुनरावृत्ति सी  
मरण 
और पुनर्जीवन की
  



तभी शायद प्रेम अजर है, अमर है 
यूं ही नहीं प्रेम शाश्वत है !





गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

सुनो !





सुनो !
अब तो बरसात भी नहीं रही ,
फिर ,
ये आँखों में सीला पन 
कैसे रह गया 


सुनो !
अब तो रात भी गुज़र गुई 
फिर,
ये आँखों में इंतज़ार 
कैसे रह गया


सुनो !
अब तो बहते बहते समंदर हो गए ,
फिर, 
लबों पर तिश्नगी 
कैसे रह गयी 


सुनो !
अब तो हर्फ़ भी ख़त्म हो चले 
फिर,
भी ये ख़त अधुरा 
कैसे रह गया 

...वन्दना...

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

कुछ बोल जुबाँ से निकले....







कुछ बोल जुबाँ से निकले  
कुछ निगाहे जुबाँ से पिघले...

रिश्ते नाते तमगे बन गए 
उम्मीदों के भी दम निकले 

इक तान सुन के मैं बह गई 
वो सुर में सुर मिला के बदले




मतलूब बदले तो बेशक बदले
बाखुदा तलब कभी न बदले

इब्तेदा में ही मर गए सब
इन्तेहा-ऐ-इश्क कौन बदले

जन्नत की तमन्ना में तिजारत
तमन्ना-ऐ-जन्नत में सजदे निकले

इबादत भी बुजदिलाना खिदमत
जहीनो ने भूखों के निवाले निगले



मतलूब = जिन्हें पाने ख़्वाहिश हो 
तिजारत = व्यापार 

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

अहा !!! ज़िन्दगी...





मानो -
अवसाद में घुलती जाती ख़ुशी....
और पिघलती जाती जैसे मोमबत्ती ...
आहा !!! ....ज़िन्दगी !!!



हर हाल बस जलती घुलती जाती...
कभी थरथराती कभी भरभराती 
आहा !!! ...ज़िन्दगी !!!



ख्वाब और ख्वाहिशों के दरमियाँ
अधूरी मौत का जश्न मनाती 
आहा !!! ... ज़िन्दगी !!!



गर्जनाओं और वर्जनाओं में
विवश हो बधिर और मूक होती 
आहा !!! ... ज़िन्दगी !!!



समंदर के किनारे कुछ टूटते तारे 
और पानी में भीगे पंख फड़फडाती 
आहा !!! ... ज़िन्दगी !!!
...वन्दना ...

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

मृत्यु...एक भीषण यातना पूर्ण दुस्वप्न ही क्यूँ ?







मृत्यु...एक भीषण यातना पूर्ण दुस्वप्न ही क्यूँ ?



भारत में पुनर्जन्म की परिकल्पना के चलते निर्वाण जैसी अवधारणा मात्र दर्शन तक ही क्यूँ सीमित है ? शांति एवं गरिमा के साथ एक अनुकूल समय विशेष पर स्वेच्छिक मृत्यु का मूल अथवा विशेषाधिकार न होना कहीं दुर्भाग्यपूर्ण तो नहीं? मानवीय जीवन के संरक्षण के पीछे मूलभूत कारण क्या हैं?  

यदि भारतीय दर्शन को ध्यान में रखकर सोचा जाय तो यह कहीं से भी अनुचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि गीता में जहां एक ओर यह कहा गया है की मृत्यु के लिए शोक व्यर्थ है क्योंकि दुबारा जन्म अवश्यम्भावी है वहीँ बौद्ध तथा जैन धर्म में यह स्पष्ट रूप से माना  जाता है की जीव अनेक बार जन्म लेता है जबतक वह निर्वाण / मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेता या दूसरे शब्दों में जीवन मृत्यु के बंधन से मुक्त नहीं हो जाता । हालांकि निर्वाण शब्द बहुत विस्तृत है और जिस पर अनेक विचार प्रस्तुत किये जा सकते हैं , किन्तु यहाँ मुद्दा इच्छा मृत्यु है , जो कहीं न कहीं विसंगतियों से भरे जीवन जीने को विवश व्यक्ति का अधिकार होना चाहिए। 

यह भी एक तथ्य है की जीवन का आदि या अंत मानवीय बूते से बाहर का विषय है यह तो ईश्वराधीन क्रिया कलाप हैं , किन्तु कानूनन यदि इस तरह की व्यवस्था की जा सके तो इसमें क्या बुराई  हो सकती है   सिवाय इसके की इस अधिकार का दुरुपयोग होने की संभावनाएं बढ़ जायेंगी . 

आध्यात्मिक रूप से पूर्ण एवं सिद्ध मनुष्य/योगी  भी सांसारिक जीवन से 
विलग ही समय व्यतीत करते हैं और अक्सर अपनी देह का त्याग स्वेच्छा से कर सकते हैं  

मृत्यु को प्रतीक्षारत वो वृद्ध जिनकी आवश्यकता उनकी संतान तक को नहीं ,या वो मनुष्य जो किसी असाध्य बीमारी के कष्ट से पीड़ित हैं , जिनका भरण पोषण भी सहज नहीं अपितु कष्ट सहन करने के लिए विवश हैं क्या उन्हें इच्छा मृत्यु का विकल्प देने पर सुखद अनुभूति का अनुभव नहीं कराया जा सकता ?

कानूनी प्रकिया निसंदेह जटिल होगी अपितु होनी असम्भव सी ही है किन्तु क्या इस ओर विचार भी नहीं किया जा सकता ?

मानवीय अविश्वसनीयता और बौद्धिक जिज्ञासा कभी कभी ऐसे छोर पर ले जा कर छोड़ देती है जहां हम निरे अनुत्तरित रह जाते हैं। यह  संभवतः ऐसी ही समस्या है जिसे अक्सर छह कर नकार दिया जाता है।


मंगलवार, 15 जनवरी 2013






बदगुमानी में जिया तो जी भी लिया..
शौक-ऐ-यकीं के शरारों से जला जिया...


तल्खी-ऐ-जीस्त  से बिगड़ा मिजाज़े आशिकी...
अक्स-ऐ-गम-ऐ-यार ने ग़मगीन किया...


मेरे मशगले कभी न किसी को रास आ सके
मैंने हर ताल्लुक बात से नहीं जज़्बात से जिया


पुर्सिश ऐ मुहब्बत में परस्तिश के एहतराम 
अहद-ए-वफ़ा भी ख्वाहिशों में नहीं 'दुआ' में जिया


....वन्दना....


शब्द अर्थ 
बदगुमानी = बुरी शंकाएं या मान्यताएं  ,  शौक-ऐ-यकीं= भरोसा करने का शौक  शरारों = चिन्गारीयों 
तल्खी-ऐ-जीस्त=ज़िन्दगी के कडवी हकीकतें 
 मिजाज़े आशिकी =प्रेम पूर्ण स्वभाव 
अक्स-ऐ-गम-ऐ-यार=प्रियजनों के जीवन की मुश्किलों की छाया , ग़मगीन = दुखी 
 मशगले=तौर तरीके /पुर्सिश= हालचाल लेना /  परस्तिश=पूजा /   एहतराम =सम्मान 

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

उज्जीवन !

साक्षात उज्जीवन !!!

प्राण प्रकृति चलित...
कथित गत्वर "लौ"
सहसा पुनः प्रज्वलित...

तृष्णा प्रजित
उपजे रोष
एकीभूत
मानवीय ओष 

शून्य न हो चैतन्य
इच्छा शक्ति ,
प्राण शक्ति
धन्य धन्य !!!

अस्तु...

साक्षात उज्जीवन !!!

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

आत्म वंचना....






व्यथा की बेड़ियों में 
जकडा मौन...
आश्चर्यजनक रूप से 
चोटिल होते होते 
स्फटिक सम टूट तो गया.. 
पर.... 
बंदी जख्मों में... 
जो चिंगारी लगी 
उस अंगार से सुलगती  
धुंआ - धुंआ  होती 
गहरी सुकोमल  आद्रता 
आहूत होती ज़िन्दगी 
प्राणों से ऊष्मा को धुआं कर गयी...  
और इस 'मन' ने इसमें भी... 
खोज लिए काव्य सौन्दर्य... के 
नए आयाम !
उलहाना दूँ... या वारी जाऊं...?

....वन्दना...

शनिवार, 17 नवंबर 2012

हाइकू....

प्रतिबंधित
अनुबंधित,दर्द
पैमाना है क्या?




बिन परीक्षा  
होना प्रतीक्षारत 
कब सार्थक 





थामा था पल
गुज़रा पल पल
आएगा कल?




कभी सपने
बुने, रंगे, सजाये
क्यों छितराए?




जीवन संग
मन मस्त मलंग
कैसा कलंक ?




दोषहीन था

निर्दोष प्रेम मय
स्वप्न नयन




असहाय सा

देवस्वरूप ऊँचा
प्रेम निठुर !




रौशन चाँद 
 गर्वित  इठलाता 
 क्यूँ मद्धिम है





रात में  देखा 
गूढ़ रहस्यमय
 चाँद उजला 




अब फिर से

आस जागी मन में
भीगे पत्तों की



आतुरता है

किसलय हो जाये
ये तन मन



अर्थमय सा
दिव्य सृजन होता
बरसात का





कच्ची दीवार
और ये पगडण्डी
लो गाँव बसा 




लड़खड़ाते
शब्दों की बैसाखी है
मौन वेदना 




सात्विक प्रेम

स्वस्ति जीवन, और  
मैं संजीवनी

 

 
साधन मात्र
निज समर्पण की
मौन वन्दना...


...वन्दना...