गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

राह और आदमी....



वो एक अकेली राह पर जाता आदमी;
अपने मन में छुपाये....
अनगिनत तूफ़ान...
मन के भीतर ही दबाये.
जीवन का उफान
कि; अभी तक वह 
संघर्षरत है ,
अपने जीवन के सुखों के लिए...
कदाचित इसीलिए निकल पड़ा है 
इस राह पर....
तलाशने कुछ नया सा...
किन्तु भागते - दौड़ते...
वह प्रारम्भिक उत्साह 
कहीं दब सा गया है,
उस तूफानी चाल में शिथिलता कैसी?
मन के अवसाद में कडुवाहट क्यों?
कदाचित , राह में ठोकर लग गयी है,
और... मन के संघर्ष 
राहों कि ठोकर खा - खा कर
बोझिल हो चले हैं,
और फिर....
वो एक अकेली राह पर लौटता आदमी ;
अपने मन में छुपाये....
अनगिनत विषाद...
जीवन का अवसाद....

...वन्दना...


6 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन सुंदर रचना, बहुत अच्छी प्रस्तुति,

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  2. सोना तप कुन्दन बने... कोयला तपे तो राख़... तप कबहूँ ना छोड़िये .... हर्ष मिले या विषाद....

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  5. wo ek akali rah par jata aadmi...apne man me chupaye anginat tufan...what a lines...
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आपकी प्रतिक्रिया निश्चित रूप से प्रेरणा प्रसाद :)